The Courier Review: बरसों से हम सुनते आ रहे हैं “देश सर्वोपरि है” या “देश के आगे कुछ नहीं”. देश के लिए जान भी देनी पड़े तो कोई बात नहीं. इन सब में जो बात कभी चर्चा में आती ही नहीं है वो है कि कोई भी देश उसमें रहने वाले नागरिकों या इंसानों की वजह से देश का स्वरुप इख़्तियार करता है. यदि इंसान नहीं है तो देश की सीमाओं की उपयोगिता क्या है? देश कोई सीमा में बंधा भू भाग नहीं है. देश एक सोच है. ये सोच देश में रहने वाले इंसानों की वजह से होती है इसलिए देश नहीं इंसानियत बड़ी होनी चाहिए. अमेरिकन फिल्म “द कूरियर (The Courier)” में इस सन्देश को बार बार देखा जा सकता है जबकि लगता है कि हर बात देश को बचाने के लिए की जा रही है.
दुनिया भर में जासूसी के तरीके तकरीबन एक जैसे ही रहते हैं. अब टेक्नोलॉजी की मदद से ईमेल या व्हाट्सएप्प या फ़ोन को टैप या ट्रैक किया जा सकता है लेकिन इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है “ह्यूमइंट” यानी ह्यूमन इंटेलिजेंस. इसमें टेक्नोलॉजी से ज़्यादा व्यक्तियों पर भरोसा किया जाता है और इसकी एक महत्वपूर्ण वजह ये भी है कि बातों के पीछे के भाव समझने में इंसान ही सक्षम होता है. 60 के दशक में रूस और अमेरिका की लड़ाई चरम पर थी. जासूसी एजेंसियां कोशिश करती रहती थी कि पैसा या किसी तरह का प्रलोभन दे कर दुश्मन देश की सरकार की नीतियों की जानकारी प्राप्त की जा सके. कभी किसी मिनिस्टर के पर्सनल स्टाफ या सेक्रेटरी को पैसे का लालच दे कर या उन्हें सुन्दर लड़कियों के जाल में फंसा कर जासूसी करने के लिए मजबूर किया जाता था. यही तरीका आर्मी या मिलिट्री के अफसरों के साथ भी इस्तेमाल होता था. रूस के खिलाफ, अमेरिका और इंग्लैंड, दोनों ही देशों ने इस तरीके का इस्तेमाल करने के भरसक प्रयास किये लेकिन रूस की कड़ी प्रशासनिक नीतियों की वजह से और अधिकारियों की देशभक्ति की वजह से उन्हें बहुत सफलता हासिल नहीं हो पाती थी.
रूस के सर्वेसर्वा निकिता ख्रुश्चेव, अपने देश की परमाणु ताक़त का इस्तेमाल अमेरिका के खिलाफ करने के पक्षधर थे. रूस के सोवियत मिलिट्री इंटेलिजेंस विभाग (जीआरयू) के वरिष्ठ अधिकारी ओलेग पेन्कोव्स्की को ख्रुश्चेव का इस तरीके से परमाणु हथियारों का इस्तेमाल मानवता को विनाश की ओर धकेलने वाला लगने लगा था. उन्होंने मॉस्को स्थित अमेरिकी दूतावास में चिट्ठी के ज़रिये इस बात की सूचना दी. ओलेग तक पहुँचने के लिए इंग्लैंड की जासूसी संस्था एमआय 6 और अमेरिका की सीआईए ने मिलकर एक चतुर व्यापारी ग्रेविल विन को ढूँढा. ग्रेविल ब्रिटिश नागरिक थे और पूर्वी यूरोप में व्यापार के सिलसिले में अक्सर आते जाते रहते थे. ग्रेविल को इस बात का एहसास हुआ कि अगर उसने जासूसी करने में मदद नहीं की तो शायद रूस अपने परमाणु हथियारों से इंग्लैंड और अमेरिका पर हमला कर सकता है. अपना व्यापार बढ़ाने का बहाना ले कर वो रूस पहंचता है और ओलेग से मुलाकात करता है.
दोनों में आपसी विश्वास और सामंजस्य स्थापित होता है और ओलेग उसे रूस के परमाणु बम के ख़ुफ़िया प्लान्स की जानकारी देता है. उनकी इसी आपसी सूझ बूझ की वजह से अमेरिका और इंग्लैंड एक बहुत भयानक परमाणु युद्ध टालने में कामयाब होते हैं. ओलेग और ग्रेविल को रूस में गिरफ्तार कर के सजा दी जाती है. कुछ सालों बाद एक रूसी जासूस कोनोन मोलोडी के बदले ग्रेविल को रिहा कर दिया जाता है लेकिन तब तक ओलेग को देशद्रोह के जुर्म में रूस की सरकार मौत द्वारा मौत के घाट उतारा जा चुका होता है.
फिल्म कूरियर के लेखक हैं टॉम ओ कोनोर जिन्होंने 60 के दशक में हुई इस सत्य घटना को फिल्म स्क्रिप्ट में ढाला है. न सिर्फ उस समय के परिस्थितयों का बखूबी वर्णन किया है बल्कि प्रत्येक किरदार की आदतों को भी बखूबी उस दशक का रंग दिया है. अभिनेता बेनेडिक्ट कमरबैच ने ग्रेविल विन की भूमिका निभाई है. बेनेडिक्ट एक अत्यंत प्रतिभाशाली कलाकार हैं और उन्होंने बीबीसी के टेलीविज़न ड्रामा “शरलॉक” में पहले ही अपने लिए करोड़ों फैंस बना लिए हैं. ग्रेविल की भूमिका उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का एक नमूना है. चालाक सेल्समेन की तरह वो लोगों को शराब पिला कर डील्स हासिल करते हैं. जब उन्हें जासूसी करने के लिए कहा जाता है तो उनके चेहरे पर आश्चर्य और असमंजस के भाव एक साथ नज़र आते हैं जो बहुत कम अभिनेता ला पाते हैं.
रूस की जेल में यंत्रणा भोगते हुए भी वो अपनी बात पर कायम रहते हैं और अपने व्यक्तित्व की मजबूती का परिचय देते हैं. ओलेग पेन्कोव्स्की की कठिन भूमिका में रूसी अभिनेता मेराब ने अद्भुत काम किया है. मेराब काफी मंजे हुए कलाकार हैं लेकिन बेनेडिक्ट जैसी शख्सियत के सामने टिके रहना बहुत बड़ी बात है. मेराब इसके पहले कई बहुत चर्चित टेलीविज़न और वेब सीरीज में काम कर चुके हैं. बाकी कलाकारों ने भी अच्छा काम किया है खास कर ग्रेविल की पत्नी के किरदार में जेसी बक्ले ने. बार बार रूस यात्रा करने वाले ग्रेविल की बदलती आदतों को देख कर उसे लगता है कि उसके पति का किसी के साथ चक्कर है लेकिन जब उसे यह पता चलता है कि उसका पति देश के लिए जासूसी कर रहा है तो उसके चेहरे पर गर्व के भाव आते हैं जो बहुत ही शानदार लगते हैं.
फिल्म डायरेक्टर डोमिनिक कुक इंग्लिश थिएटर का जाना माना नाम हैं. द कूरियर उनकी दूसरी ही फिल्म है जबकि वो रॉयल कोर्ट और शेक्सपियर थिएटर के लिए कम से कम 3 दर्जन ड्रामा निर्देशित कर चुके हैं. किरदारों के आपसी संवाद उनकी खासियत है और ये बात इस फिल्म में नज़र भी आती है. फिल्म का संगीत एबल कोर्ज़ेनियोवस्की ने दिया है और ये मंत्रमुग्ध कर देता है. संगीत के सही संतुलन से एक एक सीन अपना प्रभाव छोड़ते जाता है. इस फिल्म के लिए उनकी 14 ट्यून्स का इस्तेमाल किया गया है और इस एल्बम को अगर सिर्फ सुना भी जाए तो आप इसकी प्रशंसा किये बगैर नहीं रह सकते.
द कूरियर एक बढ़िया फिल्म है. कहीं कोइ भावातिरेक नहीं है, कोई मुफ्त देशभक्ति के नारे नहीं है और दोनों प्रमुख कलाकार स्वार्थ से शुरू करते हैं लेकिन अंततः इंसानियत को ही तरजीह देते हैं. काश के ये बात आज के हुक्मरान भी समझ जाएँ की देशभक्ति के लिए देश होना ज़रूरी है और देश तो इंसानों से बनता है तो पहले इंसान ज़रूरी हैं.
डिटेल्ड रेटिंग
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